सोच रहा हूँ क्या खाऊँ। आजकल कुछ माह से भूख नहीं लग रही। पता नहीं क्यों। शायद इसलिए कि वैसे भी टमाटर भी अब कहाँ देशी रहे। देशी लहसुन की जगह चाइना लहसुन ने ले ली है। बहुत दिनों से पीपल नहीं देखा। तहसील चौराहे पर बरगद हुआ करता था। शहरीकरण के चलते काट दिया गया। अब हर घरों के सामने कैक्टस, पॉम्स आदि किस्म के अंग्रेजी पौधे नजर आते हैं।
कहीं सुनने में आया था कि बकरा और मुर्गा खाने के अति प्रचलन के चलते अब पुराने देशी बकरों और मुर्गों की नस्ल लगभग खतम हो चली है। मिनार है, दिनार है या अन्य कोई। मछलियाँ पकड़ने वाले आजकल समुद्र में दूर तक जाते हैं। तालाब और नदियों की मछलियों में विदेशी नस्ल को तैराया गया है। सफेद रंग और लाल मुँह के सुअर गलियों में घुमते रहते हैं। बेचारे भारतीय सुअरों का अस्तित्व संकट में है। धीरे-धीरे देशी खतम।
वो गलियाँ और वे चौबारे जिसे गाँव में शायद सेरी और चौपाल भी कहते हैं। अब तो फव्वारेदार सर्कल है। सिमेंट की तपती सड़कें हैं। प्लास्टीक के वृक्ष हैं। अब किसी घर से हिंग या केसर की सुगंध नहीं आती। ऐसेंस है। वेनीला है। शोर भी अब देशी कहाँ रहा। अंग्रेजी स्टाइल में शोर होता है। चिट्टी आई, पत्री आई और न आया टेली ग्राम...सिताराम सिताराम सिताराम.....सिताराम। अब तो मेल खोलो, मोबाइल खोलो....और खोलो सेट ट्रॉम।
ओह...इन अखबारों के शब्दों को क्या हुआ। पता ही नहीं चला ये भी धीरे-धीरे...टीवी, फिल्म से अब अखबार भी!!! इसका मतलब यह कि हमारी सोच भी अब देशी नहीं रही। कुछ लोग चाहते हैं कि हममें अरबों का खून दौड़े...वे ऐसा क्यूँ चाहते हैं? कुछ लोग चाहते हैं कि हममें अंग्रेजों का खून दौड़े....पूछो कि वे ऐसा क्यूँ चाहते हैं। क्या भविष्य में वीर्य आयातीत होगा?
क्या इन हिंदुओं को यह नहीं मालूम की हम भारतीय हैं? और पूछों इन मुसलमानों से कि तुम कब से अरबी हो गए? हिमालय से लेकर कन्या कुमारी तक हमारा रंग न तो अंग्रेजों जैसा है, न अरबों जैसा और न ही हम चाइनी लगते हैं। चाइनी को अपने चाइनी होने में कोई ऐतराज नहीं। अरब के शेख को अरबी होने पर गर्व है। अंग्रेज तो पैदाइशी ही गर्व से रहता है। आखिर क्या हो गया इन भारतीयों को। हिंदु, मुसलमान, ईसाई में बँटे भारतीयों के बीच शायद अब चाइनी, अमेरिकी, ब्रिटेनी और अरबी मिलकर भारत में नया बाजार तलाश रहे हैं।
देशी मछलियों से वैसे भी हम भारतीयों का जी उचट गया है, क्योंकि ये मछलियाँ अंग्रेजों के सपने देखने लगी है। सोचता हूँ कि एक परमाणु मेरे हाथ में होता तो क्या होता। मैं कतई अश्वत्थामा नहीं बनता लेकिन...जाने भी दो यारो।
Wednesday, December 23, 2009
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3 comments:
भाई यह बहस चलती रहेगी..हमें जो धुन लगी है आधुनिकता और पाश्चात्य के रंगों में डूबने की की हम सच्चाई से दूर जाने लगे है..बढ़िया प्रसंग
हुक्का अब शीशा हो गया। सिगरेट अब स्ट्टेस सिम्बल बन गई।
"हैप्पी अभिनंदन" में राजीव तनेजा
आनेवाले समय में हमलोगों को भी गायब कर भारत में रहने के लिए विदेशियों को न ले आया जाए !!
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